मुसलमान शिक्षा और प्रगति में पीछे क्यूं ?
आज से तक़रीबन एक हज़ार साल पहले 1100 ईसवी में दीन-ए-इस्लाम साइंस (विज्ञान) के गोल्डन दौर से गुज़र रहा था। ये वो दौर था जब बग़दाद साइंस और न्यू टेक्नोलॉजी का हेडक्वार्टर हुआ करता था। दुनिया भर के विद्यार्थी साइंस की आधुनिक पढ़ाई के लिए वे बगदाद जाते थे। उस दौर में यूरोप प्रशिक्षण के मामले से अंधकार में डूबा हुआ था। साइंस मुसलमान की पहचान माना जाता था।.
मुसलमानों को फतवो ने किया बर्बाद
इतिहास में दफ़्न वो दो विशेष फ़तवे जिनकी वजह से आज मुसलमान शिक्षा और प्रगति में पीछे रह गए हैं।
यह वह दौर था जब दुनियावी पढ़ाई का हर पहलू फल-फूल रहा था Algebra, Algorithm, Agriculture, Medicine, Navigation, Astronomy, Physics, Cosmology, Psychology वग़ैरा वग़ैरा में मुसलमान एक पहचान माना जाता था।
फिर ये हुआ कि ये सब अचानक रुक गया। विज्ञान, दर्शन, निर्माण और अक्लमंदी का ये दौर मुसलमानों के बीच से अचानक ग़ायब होने लगा।
वजह बना एक फ़तवा जो अपने वक़्त के इस्लामिक विद्वान कहे जाने वाले इमाम अल ग़ज़ाली (सन 1058-1111) ने अपनी मशहूर किताब तहाफुत अल फ़लसफ़ा (تهافت الفلاسفة) के ज़रिये दिया। किताब की इस व्याख्या के अनुसार संख्याओं के साथ खेलना शैतान का काम है इसलिए Mathematical calculation से मुसलमानों को दूर रहना चाहिए। इमाम अल ग़ज़ाली ईरान के खुरासान में तुस जिले के एक शहर तबरन में हुआ था।
उस दौर के मुसलमानों के बीच उनका इतना रुतबा था कि लोग उन्हें मुजद्दिद और हुज्जत-उल-इस्लाम कहते थे। ज़ाहिर है उस वक़्त के मुसलमानों ने इस फ़तवे के ख़िलाफ़ जाना इस्लाम के ख़िलाफ़ जाना मान लिया।
इसका नतीजा ये हुआ कि मुसलमानों ने उन सब साइंसी आविष्कार और रिसर्च से मुंह फेर लिया जिनमें किसी भी तरह की कैलकुलेशन होती थी। और हम जानते हैं कि बिना मैथमेटिकल कैलकुलेशन के आप किसी भी तरह की न्यू टेक्नोलॉजी में कामयाब हो ही नहीं सकते। यानि लगभग हर तरह के साइंस से मुसलमानों ने मुंह फेर लिया।
अमेरिका के नील डी ग्रास टाइसन (Neil deGrasse Tyson) जिन्हें मौजूदा दौर का आइंस्टीन माना जाता है, के मुताबिक़ इमाम ग़ज़ाली की यही बुनियादी ग़लती साबित हुई और मुसलमान हर तरह के इल्म से पिछड़ता चला गया।
इमाम ग़ज़ाली के इस फतवे के बाद सब कुछ जैसे थम सा गया। किसी ने मानो उसे अपाहिज बना दिया। इनके इस ग़लत इंटरप्रिटेशन की वजह से इस्लाम आज तक नहीं उभर पाया है। उस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाया।
दूसरा बड़ा झटका तब लगा जब प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हुआ और जिसको हराम क़रार दिया गया था। तुर्की के उस्मानिया ख़िलाफ़त (सन 1299-1922) के दौर में जब जर्मनी में सन 1455 में प्रिंटिंग प्रैस का आविष्कार हुई तो उस वक़्त के सुंल्तान सलीम (अव्वल) ने ख़िलाफ़त के शैख़ुल-हदीस के कहने पर किसी भी तरह की किताब के छापने पर पाबन्दी लगा दी। और एलान किया कि जो कोई भी प्रिंटिंग प्रेस का इस्तेमाल करता पाया गया उसको मौत की सजा दी जाएगी।
यह सन 1515 की बात है। उस वक़्त ख़िलाफ़त तुर्की से निकलकर साउथ ईस्ट यूरोप, सेंट्रल यूरोप के कुछ हिस्सों, वेस्टर्न एशिया और नार्थ अफ़्रीक़ा तक फैली हुई थी। इस फ़तवे का बहुत दूर तक असर हुआ और उस समय के मुसलमानों की प्रगति की गति अचानक रुक गयी।
जबकि दूसरे राष्ट्रसमूह ने उसे हाथों हाथ ले लिया और साइंस पर आधारित पुस्तकें, रिसर्च पेपर्स, न्यूज़ पेपर्स, इन्वेंशन आर्टिकल्स छापे जाने लगे, दूर दूर तक इल्म फैलने लगा और दूसरी क़ौमें इससे फायदे उठाने लगीं।
प्रिंटिंग प्रेस पर मुसलमानों का ये स्वयं लिखित प्रतिबंध लगभग सन 1784 में जाकर हटाया गया लेकिन फिर भी मुस्लिम दुनिया में पहली किताब सन 1817 में जाकर छापी जा सकी। यानि प्रिंटिंग प्रैस के आविष्कार से लगभग 362 वर्ष की लम्बी अवधि के बाद। इन 362 सालों में पूरी दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी। नए नए आविष्कारों और ज्ञान की रौशनी जो प्रिंटिंग प्रैस के ज़रिये फैली थी मुसलमान उस रौशनी से वंचित रह गया।
य़ह थे वह दो फ़तवे जिनकी वजह से मुसलमान आज वहां नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था।
आज अगर हम इन फ़तवों के बारे में सोचते हैं तो अजीब लगता है कि आखिर इसमें ग़ैर इस्लामी और हराम क़रार दिए जाने जैसा क्या था ! लेकिन आज भी हम ऐसे ही हैं जैसे उस ज़माने में थे। आज भी अजीब -अजीब फ़तवे दिए जाते हैं और हम अपनी ज़बान सिले रहते हैं, बल्कि कहा जाये कि इन फ़तवों का खैर-मक़दम करते हैं। और हमारी इस फितरत की वजह साफ़ है कि हम दीन-ए-इस्लाम को आज भी ठीक तरह से नहीं समझ पाए हैं।
जो हमारे उलेमा ऐ दीन ने कह दिया वो हमारे लिए पत्थर की लकीर की तरह है। हम ये मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि उलेमा ऐ दीन भी ग़लती कर सकते हैं।
हालाँकि, अजीब फतवों की सूची बहुत लंबी है। यहां कुछ और नमूने हैं
जब हवाई जहाज़ का आविष्कार हुआ तो बर्रे सग़ीर से फ़तवा जारी किया गया कि जहाज़ में सफ़र करना हराम है। फ़तवे के मुताबिक़ इतनी ऊँचाई पर इंसान का सफ़र करना खुदा की कुदरत को ललकारने जैसा है।
इसी तरह जब रेडियो की आविष्कार हुआ तो फतवा दिया गया कि ये शैतान की आवाज़ है। कैमरा और टीवी पर तो आज तक फ़तवा जारी है। इसी तरह आज कोई ब्लड ट्रांसफ्यूजन को हराम क़रार दे रहा है और कोई हेयर ट्रांसप्लांट को। कोई जेनेटिक इंजीनियरिंग को हराम क़रार दे रहा है।
पूरी दुनिया के साइंसदाँ यूनिवर्स के एक्सप्लोरेशन की खोज के सुनहरे दौर तक पहुँच चुके हैं। ग्रैविटेशनल फाॅर्स वेव्स और Higgs पार्टिकल्स की बात हो रही है। लोग एक्सप्लोर कर रहे है, यूनिवर्स के क्वांटम स्टेट के बारे में पूछ रहे हैं। Cosmology की infinity के बारे में सवाल उठाये जा रहे हैं। मार्स के सरफेस पर रिसर्च हो रहे हैं। मेडिकल साइंस भी जेनेटिक इंजिनीरिंग तक जा पहुंचा है जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी बस ख़त्म होने को है और ये सिर्फ एक छोटी सी झलक है कि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है। और हम ?
हमारी समझ और मैच्योरिटी का लेवल ये है कि हम अभी तक इस बात से खुश हो जाते हैं कि एक खीरे में "अल्लाह" या "मुहम्मद" लिखा पाया गया है। हमारी समझ का लेवल ये है कि किसी क़ुरबानी के बकरे पर "मुहम्मद" लिखा हुआ पाया गया है। ये आखिर है क्या और हम इससे दीन की क्या ख़िदमत कर रहे हैं? हम साबित क्या करना चाहते हैं?
आइये इस सन्दर्भ में देखते हैं कि पिछले सौ सालों में हमने दुनिया को क्या दिया है या क्या उससे लिया है।
आइये देखते हैं कि सन 1900 से 2017 के दौरान नोबेल प्राइज हासिल करने वालों में हम कहाँ है और बाक़ी दुनिया कहाँ है?
पूरी दुनिया में यहूदियों की आबादी ज़्यादा से ज़्यादा एक करोड़ पचास लाख है और मुसलमानों की आबादी लगभग सौ करोड़ पचास लाख। या कह लीजिये कि पूरी दुनिया की आबादी के मुक़ाबले सिर्फ 0. 2% . लेकिन नोबेल पाने वालों में उनकी तादाद 21.97% है। आज तक कुल 892 लोगों को नोबेल दिया जा चुका है उसमे से 196 नोबेल यहूदियों के नाम हैं। यहूदियों के मुक़ाबले मुसलमानों की आबादी लगभग सौ गुना है लेकिन कुल मिलाकर सिर्फ तीन नोबेल। सिर्फ़ तीन। यह दुनिया को मुसलमानों का योगदान।
पिछली एक सदी से हम पहले साइंस और न्यू टेक्नोलॉजी को हराम क़रार देते हैं और फिर मजबूरन उसे अपना भी लेते हैं। मोबाइल हराम, इंटरनेट हराम, फेसबुक हराम, ट्विटर हराम, टीवी हराम, तस्वीर बनाना हराम वगैरह–वगैरह लगता है उम्मत सिर्फ़ हराम और हलाल का फ़र्क़ करने में ही ख़त्म हो जाएगी।
कुरान साइंस की किताब नहीं है पर इसमें हर बात लिखी है 2000 से भी अधिक आयते साइंस के बारे मे है। जैसे ब्लैकहोल, वर्म होल, प्लेनेट, एलियन, एल्गोरिथम, कृषि, चिकित्सा, नेविगेशन, खगोल विज्ञान, भौतिकी, ब्रह्मांड विज्ञान, मनोविज्ञान, और भी बहुत कुछ।